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** हेलो जिन्दगी * * तुझसे हूँ रु-ब-रु * * ले चल जहां * *

Friday, August 11, 2017

आवारा

***"आवारा ***
रोज दिखती वो बगीचे में । खिड़की से देखा करता उसे बाग में इधर उधर मंडराते अल्हड़ ,बेपरवाह ,अलमस्त। ।उसके इंद्रधनुषी पँख मुझे तीस की उम्र में फिर से बच्चा बनने को निमंत्रण देते । जी करता उसे छू लूँ एक बार हाथो में ले कर चूम लूँ।
आखिर एक दिन घात लगा गुलाब की क्यारी के पास बुत बन कर खड़ा हो गया। इधर उधर फुदकती वो फिर एक गुलाब पर स्थिर हो बैठ गयी । वैसी ही अल्हड़ ,बेपरवाह ,अलमस्त। धीरे से हाथ बढ़ाया ।अगले ही पल मेरी हथेलियों में थे उसके सुंदर इंद्रधनुषी पंख । मैंने उसको सहलाया ,चूमा, उसके अंग प्रत्यंग देखता रहा । छोड़ता ,उसकी छटपटाहट देख खुश होता फिर पकड़ता। थोड़ी ही देर में वो अधमरी सी हो गयी, छोड़ने से उड़ भी नही पाती ।बस पंख फड़फड़ा कर रह जाती । जी भर गया मेरा भी अब इस खिलौने से । और उसकी शिथिलता देख डर भी लगने लगा कहीं मर तो न जाएगी । जा कर उसी गुलाब के झुरमुट उसे छिपा झट से किवाड़ बन्द कर बैठ गया । ओह ! ये क्या वो अपने सारे रँग मेरी हथेलियों में छोड़ गई। कुछ देर पहले तक लुभावने लगने वाले ये रंग अब किसी कातिल के फिंगर प्रिंट से लगने लगे । लगा अगर वो तितली मृत पायी गयी तो मेरे हाथों में लगे ये रंग चीख चीख़ कर मुझे हत्यारा घोषित कर देंगे। मैंने जल्दी से जाकर रगड़ रगड़ वो रंग छुड़ा लिया पर उस से भी मुझे संतुष्टि न हुईं तो पूरा का पूरा नहा लिया बदन रगड़ रगड़ ।कही कोई निशानी न बचे ।
अहा!सुकून मिला !
लेटते ही नींद आ गयी | पर ये क्या नींद में कानो में बड़ा शोर था | तितली , पंख ,लाश,जेल,हथकड़ी,फाँसी ।छटपटाते हुए उठ बैठा ।ओह ! निरा वहम था ।यहां तो कहीं कोई शोर नही ।कही कोई आहट नही ।एक तितली के कम होने से चमन में कोई फर्क नही आया।तितलियाँ होती ही है मन बहलाने को। मेरे भीतर का शोर भी खत्म होने लगा ।
अहा!फिर एक नई तितली दिखी । उस से ज्यादा चटकदार । उस से ज्यादा चटक रंगीन पंखों वाली। बुझती आँखों की चमक लौट आयी है । इस चमक में अब नशे का रँग मिल गया है ।
*सुनीता अग्रवाल "नेह"

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